पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत कैसे हुई?

यह एक सवाल है जिस पर कई सालों से शोध किया जा रहा है, चर्चा की जा रही है। किन्तु आज भी बुद्धिजीवी एक मत पर सहमत नहीं हुए हैं। अगर यह पूछा जाए कि जीव पैदा कैसे होते हैं? तो वो प्रजनन से ही संभव है। प्रजनन एक ऐसी विशेषता है जिससे जीव अपनी प्रजाति का विस्तार कर सकता है। दरअसल, जीवों का शरीर ऐसे पदार्थों से मिलकर बना है जो अपने आसपास के पोषण को ग्रहण कर अपने शरीर मे वृद्धि कर सकता है। और फिर इस शरीर से अपने ही समान अन्य जीव का निर्माण कर सकते हैं। उपरोक्त जानकारी समझने के बाद अब सवाल यह आता है कि ऐसा पदार्थ सबसे पहले अस्तित्व में आया कब होगा? अगर आसान शब्दों में कहा जाए तो पृथ्वी पर जीवन की सर्वप्रथम शुरुआत कैसे हुई?

यही वह प्रश्न है जिसका उत्तर इंसान तब से खोज रहा है जबसे उसके मस्तिष्क में सोचने की क्षमता का विकास हुआ है। कई सालों से चली आ रही शोध ने हमारे समक्ष कई प्रमाणों को प्रस्तुत किया। इस प्रश्न के जवाब में सर्वप्रथम रसायन शास्त्री अरेनियस ने अपना तथ्य प्रस्तुत किया जिसके अनुसार “जीवन की शुरुआत पृथ्वी पर नहीं हुई थी बल्कि किसी अन्य ग्रह पर हुई और इसके बाद फिर वहां से जीवों को बीजाणु के रूप में पृथ्वी पर उतारे गए। किंतु इस तथ्य को प्रामाणिकता इसलिए प्राप्त नहीं हुई क्योंकि यह जीवन की उत्पत्ति का सिद्धांत नहीं था बल्कि इस तथ्य से इस बात की पुष्टि की जा सकती है कि जीव कैसे फैले।

वहीं उन्नीसवीं शताब्दी में यह तथ्य भी अस्तित्व में आया कि निर्जीव पदार्थों से सजीव पदार्थों का निर्माण स्वतः ही हो जाता है। जैसे गोबर से इल्लियां और कीचड़ से मेंढक का निर्माण होता है। इस भ्रम को तोड़ा फ्रांस के वैज्ञानिक लुई पाश्चर ने उन्होंने यह साबित कर दिया कि एक जीव से ही दूसरे जीव का निर्माण हो सकता है। किसी निर्जीव वस्तु से सजीव जीव का निर्माण संभव नहीं है। इसी सिद्धांत का विकास करते हुए 1871 में अंग्रेज़ वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने अपना विचार रखा जिसमें उन्होंने संभावना व्यक्त करते हुए कहा कि जीव की उत्पत्ति गुनगुने पानी से भरे एक ऐसे उथले जलाशय से शुरू हुई होगी, इस पोखर में ‘सब प्रकार के अमोनिया और फॉस्फोरिक लवण मौजूद रहे होंगे, इस पर प्रकाश, ऊष्मा और विद्युत की क्रिया निरंतर होती रही होगी।’ इसी क्रिया ने एक प्रोटीनयुक्त यौगिक का निर्माण किया होगा। इसी में और परिवर्तन हो कर पहले जीव का निर्माण हुआ।

वहीं 1924 में रूसी वैज्ञानिक अलेक्जेंडर ओपारिन ने  एक तर्क प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने कहा ऑक्सीजन कॉर्बननिक अणुओं की विश्लेषण को रोकने का काम करता है। मगर जीवन की उत्पत्ति के लिए तो कॉर्बनिक अणुओं का बनना तो अनिवार्य है। जिस वातावरण में ऑक्सीजन न हो वहां सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में कार्बनिक अणुओं का एक “आदिम शोरबा” बन सकता है। एक जटिल विधि के द्वारा संलयन कर नन्हीं बूंदों का निर्माण हुआ होगा और अधिक संलयन कर यह अपने ही समान अन्य जीवों का निर्माण कर सकती है। लगभग

लगभग इसी दौर में एक अंग्रेज़ वैज्ञानिक जे.बी.एस. हाल्डेन ने भी इसी सिद्धान्त से मिलता जुलता एक नियम प्रतिपादित किया। हाल्डेन ने अपनी परिकल्पना के हिसाब से मत दिया जिसमें उन्होंने यह संभावना व्यक्त करते हुए कहा “उस दौरान जो पृथ्वी पर समुद्र थे वो आज के समुद्रों की तरह नहीं थे। बल्कि इससे कई ज़्यादा भिन्न थे। संभवतः पहले के समुद्र में एक ‘गरम पतला शोरबा’ का निर्माण हुआ होगा। इसमें ऐसे कार्बनिक यौगिकों का निर्माण हुआ होगा जिनसे जीवन की इकाइयां बनती हो।

इसी संदर्भ में 1953 ईस्वी में स्टेनली मिलर नामक एक विज्ञान के छात्र ने अपने शिक्षक प्रोफेसर यूरी के सहयोग से एक प्रयोग किया इस प्रयोग के माध्यम से उन्होंने मीथेन, अमोनिया और हाइड्रोजन के मिश्रण में अमीनो अम्लों का निर्माण करवाने में सफलता अर्जित की। इसी प्रयोग ने ओपरिन के सिद्धांत को प्रमाणित किया। ऐसे कुछ ही सिद्धांत है जिस पर वैज्ञानिकों की आपसी सहमति हो, मगर ओपारिन उस सिद्धांत में से एक है। जिसको सभी वैज्ञानिकों के द्वारा मान्य किया जाता है। मगर इसके बावजूद भी, समय-समय पर कई सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जाता है।

वहीं कुछ बातें ऐसी भी है जिस पर आपसी सहमति है, जैसे:

1. पृथ्वी पर जीवन की शुरूआत लगभग 4 अरब वर्ष पूर्व मानी जाती है।
2. उस दौर में समुद्रों के पानी का संघटन आज के समुद्रों के पानी की तुलना में काफी भिन्न था।
3. संभवतः पृथ्वी के शुरुआती दौर में ऑक्सीजन वातावरण में उपस्थित नहीं थी, धीरे-धीरे ऑक्सीजन का निर्माण होता गया और विकास के सतत क्रम होने से अंतत: वह वर्तमान स्तर तक पहुंच ने में कामयाब हो पाई। जैसा कि विधित है ऑक्सीजन का निर्माण हरे पौधे करते हैं, जो प्रकाश संश्लेषण की क्रियाविधि कर वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड ले कर ऑक्सीजन छोड़ते हैं। सायनोबैक्टीरिया नामक हरे शैवाल पृथ्वी पर सबसे पहले विकसित होने वाले हरे पौधे के रूप में जाने जाते हैं। इससे इस बात का आंकलन किया जा सकता है कि सबसे पहले बनने वाले जीव ऑक्सीजन की सहायता से श्वसन नहीं किया करते थे, अपितु अनॉक्सी श्वसन से काम चल जाया करता था। मगर आजकल अधिकांश जीवों को ऑक्सीजन की आवश्यकता पड़ती है।

वहीं जीवन की उत्पत्ति के बारे में हाल ही में अमेरिका की जेट प्रोपल्शन प्रयोगशला ने नया सिद्धांत प्रतिपादित किया है। यहां अध्यन कर रहे प्रोफेसर माइकल रसल ने अपना तर्क देते हुए कहा है कि जीवन की शुरुआत का कारण समुद्र की गहराइ में स्थित गरम पानी के फुंवारे से हुई है। इसके पीछे की अवधारणा यह है कि एक तैरती प्रयोगशाला ने 1977 में प्रशांत महासागर में अध्यन करते हुए यह पाया कि बहुत गहरे समुद्र के तल में दरारें स्थित हैं। और इन दरारों से निकलने वाले पानी का तापमान लगभग 4000 डिग्री सेल्सियस तक बताया जाता है। इन दरारों को ऊष्णजलीय दरारें भी कहा जाता है।

इस अध्ययन में इस बात को भी देखा गया है कि पृथ्वी के तल का निर्माण कई प्लेटों के मिलन से बना है। यह प्लेटें निरंतर खिसकती रहती है जिसके कारण यह एक-दूसरे से टकराती रहती है। भूकंप होने का कारण भी ऐसी ही दो प्लेटों का टकराना है दरअसल इसकी वजह से पृथ्वी की सतह हिलने लग जाती है। मगर इन दो प्लेटों के बीच की दरारों से समुद्र का पानी अंदर पहुंच जाता है। इस दरारों से हो कर जब यह पानी रिस कर अंदर जाता है तब यह पिघली हुई चट्टान मैग्मा से मिलता है। इसके स्पर्श से ही पानी 4000 डिग्री सेल्सियस के तापमान के आसपास पहूंच जाता है।

मगर गहराई अधिक होने के कारण दाब अत्यधिक हो जाने के कारण भाप नहीं बन पाती और पानी ऊपर की ओर उठने लगता है। जब यह बहुत अधिक गरम और क्षारीय पानी बाहर आ कर गहरे समुद्र में स्थित बहुत अधिक ठंडे पानी से मिलता है तब कई खनिज पदार्थ अवक्षेपित हो जाते हैं और एक के ऊपर एक जमा हो कर मीनार के समान रचना बनाते हैं; समुद्र के पेंदे में इस प्रकार की सैकड़ों फीट ऊंची मीनारें बनी हुई हैं। सन 2000 में अटलांटिक महासागर के पेंदे पर ऐसी मीनारों का एक पूरे शहर के समान जमावड़ा पाया गया। जब इन मीनारों का और अधिक विस्तार से अध्ययन किया गया तब प्रोफेसर रसल को उनके सिद्धांत का आधार मिल गया। होता यह है कि खनिज पदार्थों की मीनारों में स्पंज के समान छिद्र होते हैं। इन छिद्रों में होने वाली रासायनिक क्रियाओं के कारण ऊर्जा बनने लगती है। प्रोफेसर रसल के अनुसार इन छिद्रों में स्थित अकार्बनिक पदार्थों में इस ऊर्जा के कारण कई प्रकार की रासायनिक क्रियाएं होने लगीं और इनसे पहला जीवित पदार्थ बना। इस जीवित पदार्थ के लिए ऊर्जा का स्रोत छिद्रों में ही उपलब्ध होने के कारण उनमें वृद्धि और प्रजनन होने लगे। आज भी समुद्र के पेंदे पर स्थित गरम पानी की इन मीनारों में ऐसे जीव पाए जाते हैं जो पृथ्वी की सतह पर और कहीं नहीं मिलते।