उद्भव – जीवन की उत्पत्ति

उद्भव

उद्भव को समझना और समझा पाना दोनों ही मुश्किल काम है। क्योंकि यह एक ऐसा विषय रहा है, जिस पर हर सदी में विरोधाभास रहा है। प्रथवी पर जीवों के आविर्भाव के सिद्धांत को ले कर कई मत है। अनेक विद्वानों के सिद्धांत एक दुसरे के प्रति वाद-विवाद की स्थिति में भी है। ऐसे में किसी एक सिद्धांत का दामन थाम कर इस चक्रव्यूह को भेद पाना मुश्किल भरा काम है। मगर फिर भी उद्भव को ले कर 18 वी शताब्दी के प्रोफेसर चार्ल्स डार्विन ने एक किताब का विमोचन किया जिसे ‘जीवजाति का उद्भव’, (Origin of Species) नाम दिया गया।

प्रोफ़ेसर चार्ल्स ने अपने सिद्धांत में संघर्ष पर अत्यधिक बल दिया। उनका मानना था कि जीव का उद्भव जितनी संख्या में होता है, उतनी संख्याँ में वे जी नहीं पाते जिसके पीछे कारण है कि जीव की उत्पत्ति जिस अनुपात से होती है उस अनुपात से उनके भोजन की उत्पत्ति नहीं होती। अतः भोजन और स्थान सिमित होते हैं जिसके लिए जीवों में अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए आपसी संघर्ष होता है। इस संघर्ष में अनेक जीव मर जाते हैं। जिससे प्रकृतिक संतुलन बना रहता है। चार्ल्स ने अपने सिद्धांत की प्रमाणिकता के लिए एक सिंघी मछली का उदहारण दिया उनके अनुसार एक सिंघी मछली एक ऋतू में लगभग छः करोड़ अंडे देती है। अगर यह सभी अंडे सुरक्षित रहे और इन्हें भी जनन का अवसर प्राप्त हो तो इनकी पांच पीढ़ियों में लगभग यह 66,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,00,000 तक हो जाएगी। ऐसे में इनके छिलके के ढेर को ही प्रथवी सहन नहीं कर पाएगी, और सृष्टि नष्ट हो जाएगी।

निश्चित रूप से इस सिद्धांत की तह तक पहुंचोगे तो सिवाय डूबने के और कुछ हासिल नहीं होगा। मगर यह ज्ञात होते हुए भी मानवजाति के लिए उद्भव सदैव एक चिंतन, मनन और जिज्ञासा का विषय रहा है। आखिर कैसे हाइड्रोजन के दो अणु और ऑक्सिजन के एक अणु को मिला कर पानी का निर्माण किया गया? या कैसे मानव के द्वारा ऑक्सिजन ली गई और कार्बनडाई ऑक्साइड छोड़ी गयी वहीं इसके विपरीत पर्यावरण द्वारा कॉर्बनडाई ऑक्साइड ली गयी और ऑक्सिजन छोड़ी गयी ताकि पर्यावरण का संतुलन बना रहे?

प्रोफ़ेसर चार्ल्स डार्विन ने अपने सिद्धांत में जीव के उद्भव से ले कर उनके विकास के कई क्रमों को समझाया। उनके अनुसार मानव को मानव बनने में काफी इंतजार करना पड़ा, चार्ल्स के अनुसार मानव प्रकृति की मदद से सीढि दर सीढि चढ़ कर अपने अस्तित्व तक पहुंचा। चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत को अवतारवाद के सिद्धांत से भी समझा जा सकता है जो की हिन्दुदर्शन शास्त्र में वर्णित है। इस अवतारवाद के सिद्धांत की सहायता से जीवों के उद्भव और विकास को समझा जा सकता है।

जिसके अनुसार-

  1. मत्स्यावतार – यह अवतार 4000 लाख वर्ष पूर्व हुआ इस अवतार में बहुकोशीय जीव की उत्पत्ति हुई।
  2. कच्छप अवतार – उभयचर के विकास के लिए 2250 लाख वर्ष पूर्व हुआ।
  3. बाराह अवतार – स्तनपायी जीवों की उत्पत्ति के लिए 600 लाख वर्ष पूर्व हुआ।
  4. नरसिंह अवतार – स्तनधारि जीव की उत्पत्ति के लिए 250 लाख वर्ष पूर्व हुआ।
  5. वामन अवतार – 100 लाख वर्ष पूर्व मानव में धर्म के प्रति समझ
  6. परशुराम अवतार मानव में शिकार के प्रति समझ व अनुकूल को 20 लाख वर्ष पूर्व दर्शाता
  7. राम अवतार – मानव में 10 लाख वर्ष पूर्व नेतृत्व क्षमता का विकास
  8. कृष्ण अवतार – एक लाख वर्ष पूर्व नदी किनारे कृषि और पशु पालन की समझ का विकास
  9. बुद्ध अवतार – 50000 वर्ष पूर्व मानव में शारीरिक और मानसिक विकास
  10. कल्कि अवतार – मौजूदा दौर या मशीनीकरण विकास

डार्विन ने अपने सिद्धांत में आधुनिक सिद्धांत की नींव रखी। उन्होंने अनुवांशिक को पुर्णतः नकारा नहीं बल्कि उसके बारे में अत्यधिक शोध कर उन सिद्धांतों को प्रमाणित किया। उदाहर के लिए शुतुरमुर्ग एक पक्षी है मगर पीढ़ी दर पीढ़ी उसने चलने पर ज़्यादा बल दिया जिसके कारण उसके पैर मजबूत हो गए मगर इस क्रिया में उड़ान पीछे रह गयी जिसके कारण पंख कमजोर हो गए। डार्विन के सिद्धांतो की अनेक विशेषताओं में से एक विशेषता यह भी रही है कि उनके प्रत्येक सिद्धांत वास्तविक जीवन के घटकों से लिए गए हैं।

डार्विन के पूर्व भी इस सिद्धांत पर अनेक विद्वानों ने शोध किये थे और अपने-अपने सिद्धांत प्रतिपादित किये थे। मगर प्रमाणिकता के अभाव में यह सिद्धांत कहीं विलुप्त हो गए। 17 वी शताब्दी से पहले अरिस्तोटलियन के दृष्टिकोण को माना जाता था, मगर आधुनिक विज्ञान की नई पद्धति ने इसे नकार दिया। हालांकि यह नया दृष्टिकोण भी जैव विज्ञान को खंगालने के लिए धीमा था। इसके बाद जॉन रे के सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया मगर यह सम्पूर्ण जीवजाति को अलग कर किसी एक प्रजाति पर केन्द्रित हो कर रह गया। इनके बाद 1735 ईस्वी में आए कार्ल लिनिअस ने अपने सिद्धांत जैविक वर्गीकरण में स्पष्ट रूप से प्रजातियों के रिश्तों की श्रेणीगत प्रकृति पर अपने सिद्धांत में अत्यधिक ध्यान दिया।

द्वारा पेश जैविक वर्गीकरण ने स्पष्ट रूप से प्रजातियों के रिश्तों की श्रेणीगत प्रकृति को मान्यता दी, लेकिन अभी भी एक दैवीय योजना के अनुसार निर्धारित प्रजातियों को देखते हुए।

इसके बाद भी कई प्रकृतिवादीयों ने अपने-अपने अनुसार जीवों के विकास की अवधारणा प्रस्तुत की, इसी कड़ी में सन 1751 में पियरे लुइस माउप्रर्टुस ने प्रजनन के दौरान होने वाली प्राकृतिक संशोधनों की और आकर्षित किया। उनके अनुसार एक नई प्रजाति का निर्माण उसकी कई पीढ़ियों में हो रहे मंद प्राकृतिक संशोधन के कारण होता है। लुइस के इस सिद्धांत ने बहस को एक नई दिशा दे दी कई विद्वानों ने इस नियम में अपना संशोधन भी दिया। जैसे जॉर्जेस-लुइस लेक्लरर्क, कॉमटे डी बफ़फ़ोन का सुझाव था कि इस तरह प्रजातियों को अलग जीवों का साथ बिगाड़ सकता है, वहीं इरास्मस डार्विन का सुझाव था कि सभी गर्म रक्त वाले जानवर एक ही सूक्ष्मजीव से उतर सकते थे।

मगर डार्विन के स्पष्ट सिद्धांतों के बिच यह सिद्धांत अपनी जगह नहीं बना पाए। एक यात्रा के दौरान डार्विन ने पाया कि कई पौधों की प्रजाति एक तरह की होती है। इसी तरह कई जीवों की प्रजाति में भी थोड़ा-बहुत ही फर्क है। यही बात कीड़ो पर भी लागू करती है। डार्विन ने अपनी इस यात्रा के लगभग 20 साल बाद जीवों एवं पौधों की प्रजातियों का अध्यन किया और सन 1858 में दुनिया के सामने क्रमविकास का सिद्धांत पेश किया। इस सिद्धांत में उन्होंने कहा कि विभिन्न प्रकार के पौधों की प्रजाति पहले एक जैसी ही थी, मगर संसार के हर क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति भिन्न होती है। जिसके कारण पौधों की एक प्रजाति से कई प्रजाति का निर्माण हो गया। यही धारणा उनकी इंसान के लिए भी थी उनके अनुसार इंसान के पूर्वज बन्दर थे मगर कुछ बन्दर अलग तरह से रहने लग गए। धीरे-धीरे जागरूकता के कारण विकास होता रहा।

हालाँकि इतने महत्वपूर्ण सिद्धांत और उनकी इतनी स्पष्टता से प्रमाणिकता देने के बावजूद भी चार्ल्स डार्विन का उनके समकालीन विद्वानों एवं जन साधारण ने काफी विरोध किया। यहाँ तक कि उन्हें इश्वर का हथियार तक घोषित कर दिया गया। अपनी सफाई में अक्सर डार्विन कहा करते थे “‘मैं अब बूढ़ा हो चूका हूँ और कुछ दिनों से तो बीमार भी रहने लगा हूं। अभी बहुत से काम ऐसे हैं जो मुझे करने बाकी है। ऐसी स्थिति में आपके सभी सवालों के जवाब देने में मैं समर्थ नहीं हूँ। और मेरे पास इतना समय है भी नहीं। विज्ञान का ईश्वर के अस्तित्व से कोई वास्ता नहीं है। जहां तक मेरा मानना है मुझे नहीं लगता ईश्वर ने किसी दूत के जरिए अपनी प्रकृति और मनुष्य की रचना में निहित अपने उद्देश्यों को को कभी बताया होगा। ’

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